किसी भी रोग के मूल में व्यक्ति के भाव ही होते हैं। शरीर की विभिन्न ऊर्जाओं का संचलन भावों के द्वारा ही प्रतिपादित होता है। भावों के कारण ही ऊर्जाएं सन्तुलित रहती हैं और ऊर्जाओं का असन्तुलन ही रोगों का मूल कारण बनता है। रोगों की शुरूआत भीतर से होती है और समय के साथ-साथ शरीर में रोग बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है।
 
आधुनिक विज्ञान में चूंकि आत्मा, भाव और मन जैसे तžवों का समावेश नहीं है, अत: शरीर-विज्ञान की दृष्टि से शरीर का स्वरूप भी एकांगी है। अब तो अमरीकी शोधकर्ता भी इस तथ्य पर चर्चा करने लगे हैं। भारतीय दर्शन जीवन का आधार आत्मा को मानता है। मन के माध्यम से भाव-क्रिया ही हमारे शरीर और कर्मो का संचालन करती है। इसका एक अनूठा उदाहरण है “भय”। हर व्यक्ति जीवन में सुख चाहता है और सुख का शत्रु है—भय।
 
भय भी कई प्रकार के होते हैं। मृत्यु, रोग, दुर्घटना, असफलता, हानि, अपयश आदि अनेक कारण हो सकते हैं भय के। फिर, कतिपय भय व्यक्ति के मन में स्वयंजनित भी हो सकते हैं। बाहरी भय का आकलन आसानी से किया जा सकता है, किन्तु भीतर के भय को समझने में विशेष चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। भय वस्तुत: काल्पनिक स्वरूप में अधिक होते हैं। जितना अधिक चिन्तन, उतना अधिक भय। बुद्धिजीवी अधिक भयत्रस्त होते हैं। आशंकाएँ ही भय पैदा करती हैं। जिस रूप में मन की आशंका होती है, उसी रूप में परिणाम भी आते हैं।
 
हमारे यहां प्रार्थना, उपासना में अभय की चेतना का विकास किया जाता है। मानव मन में श्रद्धा, आत्मविश्वास जगाया जाता है। स्तुति में सभी प्रकार के भय से त्राण का मार्ग समर्पण भाव के साथ प्रशस्त किया जाता है। व्यक्ति अपने सभी प्रकार के भय ईश्वर के हवाले छोड़कर आश्वस्त होता है। यही भाव-क्रिया में अभय की अनुभूति पैदा करते हैं। जो विषय हमारी सामथ्र्य के बाहर होते हैं, उनको तो ईश्वर पर छोड़ दिया जाता है। महाभारत में कहा गया है—”शोकस्थान सहस्त्राणि भयस्थानशतानि च, दिवसे दिवसे मूढ़माविशंति न पंडितम्।” — हजारों शोक के स्थान (अवसर) तथा सैकड़ों भय के अवसर प्रतिदिन प्रतिपल मूढ़ मस्तिष्क में आविष्ट होते हैं। सत् और असत् को पहचान लेने वाली पण्डा नाम की बुद्धि जिस भाग्यवान मनुष्य की हो जाए उस पण्डित को ये शोक-भय कभी नहीं सताते।
 
अमरीकी शोधकर्ता रोजलिन ब्रूयेरे ने अपनी पुस्तक “व्हील्स ऑफ लाइट” में लिखा है कि अब तक के सभी परीक्षण इस बात को स्वीकारते हैं कि शरीर में गठिया, रक्तचाप और ह्वदयरोग जैसे रोगों का कारण हमारे भाव ही हैं। इनमें भी क्रोध और भय सबसे प्रमुख हैं। एक महžवपूर्ण तथ्य को रोजलिन ने उजागर किया है कि क्रोध, भय, आवेग आदि भाव हमारे शरीर के रक्षातंत्र के अंग होते हैं, क्योंकि हमेंं विश्वास नहीं होता कि शरीर स्वयं इनको व्यवस्थित कर लेगा। हमें कुछ न कुछ अनर्थ अथवा आक्रोश का भी भय रहता है। वास्तव में आक्रोश तो हमारे अवरोध से पैदा होता है।
 
रोजलिन लिखते हैं कि जब भी हम भय, क्रोध, जैसे आवेगों को दबाते हैं अथवा इनके प्रति लापरवाही बरतते हैं तो हमारे मूलाधार की गति में अवरोध पैदा होता है। स्वयंजनित भय भी मूलाधार को प्रभावित करता है और बाहरी भय स्वाधिष्ठान को पहले प्रभावित करता है। बढ़ने की अवस्था में यह भी मूलाधार में ही पहुंच जाता है। शरीर और बुद्धि को होने वाले सभी अनुभव मूलाधार से होकर ही हमारे स्नायुतंत्र में जाते हैं।
 
मूलाधार की स्वीकारोक्ति के बिना कोई अनुभव हमारी स्मृति में अंकित नहीं होता। मूलाधार का सन्तुलन बिगड़ने से रक्तवर्ण का सन्तुलन खराब होता है। शरीर के विभिन्न अंगों में सूजन आ जाती है। दर्द होने लगता है। रक्तवर्ण की यह ऊर्जा पृथ्वी से प्राप्त होती रहती है। इसका सन्तुलन व्यक्ति को जीवन्त बनाए रखता है। जीवनशक्ति प्रदान करता है और पृथ्वी से जोड़ों को प्रभावित करता है।
 
भय तथा आवेग का असन्तुलन रक्तचाप और ह्वदय विकार को प्रभावित करता है। व्यक्ति के मन से जीवन-भाव बिखरने लगता है। दवाओं से शरीर की प्रतिक्रिया दब जाती है, किन्तु जीवन-भाव नहीं लौटता। इसके लिए दो ही उपाय हैं। एक बिखरी हुई रक्त-ऊर्जा को पुन: मूलाधार में लाना, ताकि व्यक्ति फिर से जीवन्त हो सके। यद्यपि इसके साथ ही क्रोध भी पुन: स्थापित होगा। दूसरा यह कि जहां-जहां दर्द बढ़ने लगा है वहां-वहां शीतल वर्ण ऊर्जाएं उपलब्ध करानी होंगी। यह केवल विकल्प चिकित्सा से ही सम्भव है। ध्यान प्रक्रिया में भी इसका समाधान निहित है। ध्यान में सभी ऊर्जा-केन्द्रों अथवा चक्रों पर इन्द्रधनुषी रंगों का सन्तुलन सिखाया जाता है।
 
अभिप्राय यह है कि भाव-क्रिया व्यक्ति को बहुत दूर तक प्रभावित करती है। समाज में जिस तेजी से अपराध बढ़ रहे हैं, उसके मूल में हम इस भय और क्रोध को देख सकते हैं। यौन अपराध का मूल भी यही है, किन्तु स्थिति अधिक भयावह है। पश्चिम में प्रतिदिन होने वाली जघन्य हत्याओं को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
जिस समाज में भक्ति, स्तुति तथा श्रद्धा का बोलबाला है, वहां क्रोध और भय जैसे आवेग अल्प ही होते हैं। व्यक्ति सुख-शान्ति से जीता है। उसकी समाज में प्रतिष्ठा रहती है।